ब्राह्मण विरोध की आड़ मे हिंदूफोबिया

भारत की अद्भुत सामाजिक संरचना को जब अंग्रेज़ों ने देखा तो वो अचरज में पड़ गए. यहां साधारण लोग राजा बन सकते थे, राजा ऋषि, पुजारी व्यवसायी, किसान सैनिक या फिर सैनिक किसान. इस प्रत्यक्ष रूप से लचीली तरल पर गूढ़ सामाजिक फ़ेर बदल दिमाग को झकझोर देने वाली थी। जीवन और धर्म के हिंदू तरीके के विशाल तंत्र में सभी वर्ण आसानी से एक दूसरे में विलय होते थे या निर्मित होते थे। क्षेत्रीय विशिष्टताएं और सांस्कृतिक प्रथाएं इस विस्मय को और बढ़ा देती थी जो कि साधारण अंग्रेज़ी सैनिक और अफसरों के समझ के परे थी। ऐसे समाज पर राज करने और नियंत्रित रखने के लिए एक ऐसे ढांचे की अशक्यता थी जो साधारण से साधारण अंग्रेज भी बुनियादी तौर पर समझ सकें। 
 
इसलिए, सामाजिक पहचान, सांस्कृतिक प्रथाओं और धार्मिक तरीकों की एक बड़ी ही महीन परंतु विविध प्रणाली वा अमूर्त संरचना जिसकी दुनिया में कोई समानता नहीं थी, को फिर से बनाया गया एक भावहीन सरलीकरण प्रक्रिया का उपयोग करके , जिसकी दुनिया में कोई समानता नहीं थी !!
 
प्राचीन सूक्ष्म परंतु गहरे विचारधारायें जिन्हें समझना मुश्किल था उन्हें कुचल तोड़-मरोड़ कर उनके निकटतम पश्चिमी विचारों और अवधारणाओं से जोड़ा गया। वर्णो के बीच लचीली सीमाओं को अनम्य करके नई श्रेणियों स्थापित की गई जो पश्चिमी सामाजिक पदानुक्रम से मेल खाती थी। और जो बाकी बचे हुआ कथित बोझिल, असंगत और बेमेल भाग थे उन्हें एक साथ जबरन पैक कर के वीभत्स नई श्रेणियां बनाई गई।
 
इस प्रकार जो नया ढांचा उत्पन हुआ उसे जाती-धर्म आधारित तुष्टिकरण की धूप में ठोस किया गया, जहां “निर्मित श्रेणियों” को “वास्तविक अधिकारों” के साथ बाँध दिया गया। गोरों के बाद भारतीय उत्तराधिकारियों को यह अजीबोगरीब पैरोडी विरासत में मिली और उन्होंने इसे इस हद तक आगे बढ़ाना जारी रखा कि अब इस फ्रेंकस्टीन ने अपना ही एक अलग जीवन ले लिया है जो कि घृणित, अस्थिर और अपने ही अस्तित्व के विरोधाभास मे रहता है।
 
1857 के चश्मदीद गवाहो के विवरणों से ये निकल कर आता है कि बगावत का एक कारण सेना में ब्राह्मण सैनिकों का होना भी था। और ये भी, की अगर बंगाल और बॉम्बे के सेना मिल गई होती तो ये बगावत अजेय हो सकती थी। दोनों ही सेनाओं मे ब्राह्मण सैनिक प्रचूर मात्रा मे थे। यह भी पाया गया कि अधिकारी, ब्राह्मणों की भर्ती पसंद करते थे क्यूंकि वो डील डोल से अच्छे थे (built),स्वयं की पहचान की मजबूत भावना रखते थे (strong sense of identity), तथा मानसिक प्रखरता (Intelligence) और स्वच्छता (personal hygiene)का परिचय देते थे।
 
अंग्रेजों ने यह भी देखा कि ब्राह्मण सैनिकों का अपने साथियों पर एक विशेष प्रभाव था। इसका लाभ स्वयम अंग्रेज़ भी लेते थे सैनिकों को नियंत्रित करने के लिए। लॉर्ड एलफिंस्टन ने लिखा भी कि ब्राह्मण सैनिकों का दूसरों सिपाहियों पर प्रभाव सैन्य अनुशासन के लिए खतरा है। यह भी पाया गया कि ये प्रभाव किसी जातिगत श्रेष्ठता के कारण नहीं, बल्कि अन्य सैनिक ब्राह्मण सिपाहियों की मूलभूत धारणाओं और नैतिकता के सम्मान करते थे। तो स्वाभाविक था कि जब विद्रोह का झंडा फहराया गया तो सैनिकों ने केवल यह विश्वास किया कि ब्राह्मण सैनिक सही कर रहे है और उनसे जा मिले।
 
अगर किसी भी समाज को नष्ट करना है तो वह चिन्ह और प्रतीक जो उसके प्रिय हो, सम्मानित हो उसको नष्ट कर देना चाहिए। 1857 मे मुह की खाई अंग्रेज़ी हुकूमत ने ये बात समझली। हिन्दू धर्म के भीतर दरार पैदा करते हुए ब्राह्मणों को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाया गया। जाति की अवधारणा को राष्ट्र के मानस पटल पर मज़बूती से छापा गया और लाभों से जोड़ा गया। वह लाभ जो कभी काल्पनिक और कभी वास्तविक थे। हिंदू धर्म को झूठे आख्यानों, रूढ़ीवादी परंपराओं के प्रचार, पक्षपात और इसके दो प्राथमिक प्रतीकों – मंदिर और ब्राह्मण – के क्षय के माध्यम से व्यवस्थित रूप से विनाश किया गया।
 
मंदिर अधिग्रहण: 1925 में, एक कानून पारित हुआ जिसके माध्यम से हिंदू मंदिरों को विनियमित करा जा सके। भारत मे मंदिर न केवल पूजा के स्थान थे बल्कि हिंदू समाज की धुरी भी थे. वह कभी सामाजिक-आर्थिक केंद्र, कभी सामुदायिक योगदान के माध्यम से धर्मार्थ संस्थान थे। और कभी कला और संगीत के संरक्षक। ऐसे दायित्वों का निर्वाह करते हुए मंदिर समाज को स्वायत्त रूप से कार्य करने में सक्षम बनाते थे। मंदिर की इस अव्यक्त शक्ति से अंग्रेजों को विशेष भय था। क्यूंकि एक आत्मनिर्भर समुदाय नकली समाजवाद और झूठी धर्मनिरपेक्षता को ग्रहण नहीं करेगा। वहीं एक कल्याण-आश्रित आबादी विद्रोह करने का साहस नहीं रखती और ना ही सवाल पूछने की क्षमता। मंदिरों का धन तो सिर्फ एक बोनस था, असली लक्ष्य हिंदू समाज की पराधीनता थी। उसको खोखला और परजीवी बनाना और जनता पर हिंदू धर्म की पकड़ को ढीला करना था। मंदिरों के क्षय ने इन सभी उद्देश्यों को प्राप्त किया। आज भी केरल तमिलनाड दक्षिण कर्नाटक मे इसका दुष्प्रभाव साक्षात दिखाई देता है। ये भी ज्ञात रहे कि 1957 में, एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ सरकार ने उस अधिनियम को पुनर्स्थापित किया। यह अनुमान आसानी से लगया जा सकता है कि उसके पीछे क्या मंशा थी।
 
ब्राह्मण दमन: जबकि जाति व्यवस्था के अत्याचारों के बारे में कई सटीक रिपोर्ट मौजूद हैं, ब्राह्मणों पर इसकी विषैली प्रतिक्रिया और आघात के बारे में कुछ खास उपलब्ध नहीं है। शुरुआत में ब्रिटिश, और बाद में ढेरों नेताओं ने जाति-आधारित अन्याय, हिंदू प्रथाओं पर आलोचना, और हिंदू धर्म से मुक्ति के इर्द-गिर्द अपनी पहचान बनाई। लेकिन इसका सीधा परिणाम ब्राह्मणों को भुगतना पड़ा, जिन अपराधों का शायद ही कभी हिसाब दिया गया हो। भारतीय समाज में कहीं भी कोई भी कुरीति का ब्राह्मण ही चिह्न तथा पोस्टर बॉय बने। और यह इस लिए नहीं की वह अकेले ही उक्त अत्याचारों के “कथित रूप से” अपराधी था बल्कि इसलिए क्यूंकि वह एक मात्र ऐसा समुदाय था जो कि हिन्दू धर्म से दृष्टिगत रूप से समानार्थी थी। क्षत्रियों की तलवार छिन चुकी थी और वैश्य तराजू से दूर, पर ब्राह्मण का टीका त्रिपुण्ड जनेऊ भागवा उसके जीवन का अंग था। असली लक्ष्य धर्म पर प्रहर था ब्राह्मण तो सिर्फ माध्यम। अंग्रेजों के लिए, ब्राह्मण वह शक्ति था जिसने शासन करवाया और विद्रोह का कारक बना । ईसाई मिशनरियों के लिए, ब्राह्मण ईसाई-करण मे प्राथमिक बाधा था। नास्तिक वामपंथियों के लिए, ब्राह्मण हिंदू धर्म के आध्यात्मिक/धार्मिक/सामाजिक विचारों के स्रोत था। बौद्धों के लिए, ब्राह्मण वह खलनायक था जिसने बौद्ध भारत के सपने को नष्ट किया। जाति-राजनीति के समर्थकों के लिए ब्राह्मण मनुस्मृति के तथाकथित संरक्षक था और दुष्ट जनक (patriarch) भी। इन सभी ने हिन्दू धर्म के खिलाफ अपने विलक्षण क्रोध को निर्देशित किया और ब्राह्मण को उसकी वेदी पर बलि चढ़ा दिया।
 
ब्राह्मणों की सटीक स्थिति पर बहुत कम डेटा मौजूद है, ऐसा कोई भी अध्ययन (यदि कोई मौजूद है भी) सार्वजनिक डोमेन में आसानी से उपलब्ध नहीं है। उपाख्यान, हालांकि, उनकी खेदजनक स्थिति के बारे में बहुत कुछ है, जिस पर अक्सर चर्चा नहीं की जाती है इस डर से कि कहीं ये सांप्रदायिक या प्रतिगामी विचार ना मान लिया जाए. आज हमारा राष्ट्र वाम-उदारवाद, जाग्रतवाद (wokeism) और हिंदू पितृसत्ता के विषैले विरोध के तीव्र प्रवाह मे बह रहा है। और इसी विश्वासघाती बाढ़ ने सब बह गया है। पर ब्राह्मण उत्पीड़न, भेदभाव और उपहास के बारे में पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं। राजनेता, प्रशासन, अधिकांश समाज के मौन समर्थन मे, मीडिया ब्राह्मण को एक तरफ गैंगस्टर, भ्रष्ट नेता, दलाल, वैश्यावृत्ति का शौकीन दिखती है या फिर दूसरी तरफ कालानुक्रमिक मूर्ख, कुटिल, कमजोर, या लालची कंगाल। ऐसे सभी चित्रणों में प्रमुख रूप से हिंदू प्रतीकों को प्रदर्शित किया जाता है: टीका, जनेऊ, रुद्राक्ष, देवी-देवता, क्यूंकि निशाना तो हमेशा से धर्म ही रहा है।
 
पर हकीकत तो इससे भी कहीं ज्यादा कड़वी और परेशान करने वाली है। शहरों में मजदूरों की एक बड़ी संख्या – रिक्शा चालक, ऑटो/टैक्सी चालक, सुरक्षा गार्ड, रसोइया, सड़क की सफाई करने वाले, कार्यालय के लड़के आदि – ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणों की एक बड़ी संख्या (जो स्वयम भारत की आबादी का 6% है) गरीबी में या गरीबी रेखा से नीचे है। और उनकी दुर्दशा ऐसी है कि संवैधानिक रूप से उच्च जाति होने के कारण उन्हें सरकारी योजनाओं से वंचित कर दिया जाता है और जाति-आधारित नीतियों के कारण उन्हें राहत मिलती ही नहीं है, जो उन्हें मानव अस्तित्व के नरक में और नीचे ढकेल रही है। कोटा प्रणाली उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा से वंचित करती है, जिससे वे भरण-पोषण के लिए जो भी छोटा-मोटा मिलता है करते है। जो इन शैक्षिक चुनौतियों को पार कर पाते हैं, उनके पास सरकारी नौकरियों में सीमित अवसर होते हैं, और यदि वे इससे भी आगे निकल जाते हैं, तो वे पदोन्नति और विकास में सीमित रह जाते हैं।
 
विरोधाभास तो यह है कि बढ़ती हुई साक्षरता और मीडिया ब्लास्ट हिंदूफोबिया को और बढ़ा रही है और ब्राह्मण अब और पिस रहा है। इसका श्रेय जाता है बढ़ते हुए जाग्रतवाद को जो कि भारतीय समाज मे कैंसर की तरह फैल रहा है। वह समाज जो की ऐतिहासिक कारणों से स्वयं अशांत पूर्वाग्रह से ग्रसित है। पक्षपाती संस्थानों, वामपंथी शिक्षाविदों और कुंठित शिक्षकों, कथाकारों ने बौद्धिक रूप से संस्थागत एंग्लोफोन की एक गहरी परत बना दी है जो सांस्कृतिक रूप से खोखले और भावनात्मक रूप से अनाथ हैं। शिक्षा या मीडिया के माध्यम से प्रसारित आत्म-आलोचना आख्यानों और नकारात्मक आत्म-मूल्यांकन के अफीम मे धुत्त ये लोग या तो पूर्वाग्रहों के कारण या तथाकथित नए युग के भारतीय (जो खुद को अंतर्राष्ट्रीय जाग्रतवाद और उदारवाद उप-संस्कृति के साथ जोड़ते है) के सामाजिक हलकों में स्वीकार किए जाने के दबाव मे इस परम्परा को बढावा देते है।
 
येही वो विषैले सर्पों की माला है जो पाश्चात्य मोहभंग जाग्रतवाद, विवेकवाद और नव-अंबेडकरवादी आत्म-घृणा को मूर्खतापूर्ण अपनाने से पैदा हुई है। और वह ब्राह्मण, जो पहले से ही लगभग विलुप्त होने के कगार पर है, उसे येही माला पहनाई जा रही है । कोई मसीहा और कोई शुभचिंतक न होने के कारण, साधारण ब्राह्मण अकेला खड़ा है, सदमाग्रस्त और एकाकी । कोई आश्चर्य नहीं कि आत्म-केंद्रितता और आत्म-संरक्षण इस समुदाय की प्राथमिक विशेषता बन गई है, जो शायद वर्षो से चलते इस मुहीम से स्वयं की रक्षा हेतु उपजी हो। फिर भी, ब्राह्मणों के असली अपराधी स्वयं ब्राह्मण ही हैं। वे एक ऐसे समाज में अपने अधिकारों के लिए खड़े होने में विफल रहे हैं जो इस तरह की जाति/क्षेत्रीय पहचान पर तेजी से एकजुट हो रहा है। अंततः हो सकता है कि इस युग में ब्राह्मण पुराने काल के दलित बन गए हों, जो केवल चुनावों में लुभाए जाते है, दुर्व्यवहार के शिकार बनते हो, इस्तेमाल होते है और फिर भुला कर मरने के लिए छोड़ दिए जाते हो। शायद इतिहास का कालचक्र पूरा हो गया।
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