Poems from My Childhood (पापा की पुरानी कविताए)

Prashant M. 27 Dec, 2024

Poems from My Childhood (पापा की पुरानी कविताए)

Verses from the poems that I remember my dad used to recite when I was little. They are etched in my soul. They weren't just words; they were seeds that a child could plant in the rich soil of his or her mind. These lines lived in the twilight zone of my memory for years, surfacing at random times, sometimes as bright as a shooting star across the night sky and other times as dim as an old lamp flickering. As time went on at a constant speed, I forgot about them because of the responsibilities of being an adult. After all these years, these songs are coming back to me now that I'm fifty. They come out of nowhere, like old friends who won't let me forget who I am and who I was.

There is an allure in their rhythm and an insistent force in their rhymes that makes me want to remember them and respect them. These words opened my eyes to the world of art, ideas, and beauty for the first time. Even though I was too young to fully understand them, they changed the way I saw life. Now that they're calling to me, I want to bring them back into the light, not just for myself, but also for other people who might find value in them. Poetry seems to have the strange ability to connect people of different ages and experiences.

It might be time to let these texts go again, so they can be used to encourage, comfort, and make people think. Because poetry, like life, is meant to be shared. Its beauty lies in both reading and hearing.

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कविता: आग जलाये रखना
कवि: महेश संतोषी

मैं बुझते अंगारों को अब फिर गीतों से फूंक रहा हूँ, 
तुम भी राख हुए, प्राणों में, थोड़ी आग जलाए रखना ।

दो बुझते जीवन बांधे है जैसे एक आग की डोरी,
मेरा पहला प्यार अधूरा, मेरी अंतिम चाह अधूरी, 
यों मुँह देखे सगे सभी पर जलने में जो अपनापन है, 
शायद वह मेरी निर्मलता, शायद वह मेरी कमजोरी ।
मैं हर सपने को आँसू की शबनम से फिर सींच रहा हूँ, तुम अपने बोझिल नयनों में. किचिंत प्यास बचाए रखना;

मैने डग जल से लिख डाला अब तक, 
जो इतिहास जलन का थोड़ा सा आभार जनम का,थोड़ा सा आभार मरण का, 
उसको पल पल रोज मिटाती जाती, स्याह समय की स्याही, 
इति-अथ ऐसा ही होता है, मेरे हर लाचार सपन का ।
मैं अपने जीवन-दर्शन को, जिस दर्पण में देख रहा हूँ, उसके टूक-टूक होने तक, अपना रुप सजाए रखना ।

मैं इतने जीवन सत्यों में एक सत्य पहचान न पाया, 
समय पटल पर धुंधली हो ही जाती है, हर गहरी छाया, 
वैसे तो अनगिन सुधियों में, चुन-चुन रंग भरे गीतों में, 
एक-एक कर रंग उड़े सब, मेरा गीत-गीत पछताया ।
मैं बिखरी बिखरी सुधियों की, एक श्रृंखला जोड़ रहा हूँ. तुम भी हर विस्मृति के क्षण में, मन में गांठ लगाए रखना ।
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कविता: एक भूल काफी है
कवि: महेश संतोषी

याद भूल जाने को एक उम्र कम है पर, 
एक भूल काफी है उम्र भर रुलाने को !

एक सांस जीवन में एक बार आती है, 
बार बार लेकिन क्यों आँख डबडबाती है ?

मनचाहा आँचल तो मुश्किल से मिलता है, 
इसी लिए आंसू को धूल बहुत भाती  है !

रूप के बढ़ाने को लाख फूल कम हैं पर, 
चार फूल काफी हैं अर्थियां सजाने को। 

कुछ तो मन मृगजल के पीछे भरमाता है, 
कुछ मन का मेघों से मरुथल सा नाता है। 

आशा ही आशा में होंठ सूखे जाते हैं पर
कौन बुझे प्राणों की प्यास बुझा पाता है।  

प्राण दान पाने को एक बूँद मुश्किल पर, 
एक बूँद काफी है जिंदगी डुबाने को। 

प्रात कब हंसाता है,सांझ कब सुलाती है,
किस किस से साँसों की कथा लिखी जाती है। 

समय सभी घावों को पूर नहीं पाता है ,
दबी हुई पीड़ा भी उभर उभर आती है। 

दर्द के मिटाने को सौ सौ सुख  कम हैं पर,
एक दर्द काफी है लाख सुख भुलाने को। 

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कविता: आग जलती रहे
कवि: रामानंद दोषी
पुस्तक: गीले पंख, 1959 

तारिका एक टूटी गगन-डाल से, चाँद ने आँख भर यों कहा-"बावली, 
मैं तड़पता रहूँगा यहाँ रात भर, तू भटकती फिरेगी बता किस गली ?"

लाज से गड़ गई वह लजीली दुल्हन, फूल के गाल पर ओस बन ढल गई, 
किन्तु निष्ठुर चली कुछ हवा इस तरह वह गगन की सखी धूल में मिल गई,

प्यार की इस कथा का यही अन्त है, झाँकता है प्रलय हर प्रणय-छोर से ! 
इसलिए प्यास के घाट पर अनमनी, बँध गई जिन्दगी प्रीत की डोर से।
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